सच का सहारा

              सच का सहारा

सच के साथ कितने लोग खड़े हैं, सच के लिए कितने लोग खड़े हैं, सच को कौन सा झूठ कब हरा रहा है या उससे हार रहा है, सच को इससे कोई लेना देना नही होता है क्योंकि अंततः कोई  कँही नहीं जा पाता है और अंत में परेशानी से निजात पाने के लिये हर किसी को सच के पास आना ही पड़ता है। और यह बात जितनी दर्शन के लिए सही उतनी ही व्यवहार में भी, भले वह व्यवहार राजनीति का क्यों न हो। 
    सच को सबसे बड़ी चुनौती व्यवहारवाद से मिलता है क्योंकि व्यवहारवाद का दर्शन सच के आदर्श पर चोट करने की कोशिश करता है। झूठ सच से बचने का रास्ता तलाशता है लेकिन व्यवहारवाद सच को चुनौती सच का सच का अतिसरलीकरण कर के करता है। व्यवहारवाद सच से कन्नी नहीं काटता बल्कि सच को व्यवहार के अनुरूप विकृत कर उसे ही व्यवहारिक  मानता है और मानने के लिए लोगों को भी प्रेरित करता है।
    आज राजनीति में बहुसंख्यवाद को जो समर्थन समाज की तरफ से  मिल रहा है और जिस तरह एक एक कर कई राजनीति दल इसके जाल में फँसते जा रहें हैं वह इसी व्यवहारवाद की देन है।     
        लेकिन इस व्यवहारवाद की अति होने का परिणाम है कि बहुसंख्यवाद को चरम तक पहुँचाने के लिए हिंसा जैसी अतिवाद को भी समाज का समर्थन मिल रहा है जबकि हिंसा की आग में जलने वाले बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक दोनों होते हैं। यह व्यवहारवादी अतिवादीता ही है  जो तमाम ऐतिहासिक प्रमाणों के बावजूद यह मानता है कि हिंसा बहुसंख्य को अंतिम रूप से विजयी बना देगा।
        लेकिन समस्त कुछ जल जाने के बाद जो बचता है वह न तो अल्पसंख्यक होता है, न बहुसंख्यक बल्कि वही एकमात्र गवाह होता है कि सच को नकारने के बाद हिंसा उसकी क्या गत बना देती है। इस सच तक पहुँच कर आपको , हमको, जीतने वाले वाले को, हारने वाले को, बहुसंख्यक को अल्पसंख्यक को सभी को इसी सच को मानना पड़ता है। व्यवहारवाद का अतिवाद अंतिम रूप से सबको मारकर, लहूलुहान कर लूट कर अंत में सच के सामने असहाय खड़ा छोड़ देता है। ओटोमन हो, रोम हो, ब्रिटिश और जर्मन-इटालियन नाजीवाद-फासीवाद हो, अफगानिस्तान हो, इराक हो, ईरान हो, सीरिया हो, अफ्रीकी महाद्वीप के ढेरों देश हो या कोई और झूठ का हठ आपको कँही का नहीं छोड़ता।

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